सब्यसाची दास के रिसर्च पेपर पर मीडिया क्यो चुप्पी साध के बैठा है ? क्यो नहीं बता रहा है कि उस रिपोर्ट में आख़िर लिखा क्या है ?
दरअसल डर यह है कि दास ने 2019 के चुनाव में जिस तरह की मोड्स ऑपरेंडी अपनाने का दावा किया है वही तरीका अब 2024 के चुनाव में इस्तेमाल होने जा रहा है और इसीलिए अभी से उसकी पोल पट्टी न खुल जाए इसलिए इस पेपर पर कोई बात नहीं की जा रही है ?
पहले सब्यसाची दास के बारे में जान लीजिए।।।।।।। सब्यसाची दास अशोक विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर थे और वे येल विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पीएच.डी. है। अशोका में शामिल होने से पहले, उन्होंने दिल्ली में भारतीय सांख्यिकी संस्थान में पोस्टडॉक्टरल फेलो के रूप में कार्य किया। उनकी विशेषज्ञता के क्षेत्र राजनीतिक अर्थव्यवस्था, सार्वजनिक अर्थशास्त्र और व्यावहारिक माइक्रो इकनॉमिक्स हैं। अशोका के अलावा भी सब्यसाची दास ने मास्टर्स और पीएचडी के लिए राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर शिक्षण पाठ्यक्रमों के माध्यम से छात्रों को अपना ज्ञान प्रदान किया है।
25 जुलाई को दास ने “डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग इन द वर्ल्ड्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी’ रिसर्च पेपर को सोशल साइंस रिसर्च नेटवर्क पर पब्लिश किया इस पर हंगामा खड़ा हो गया
दास ने 2019 के चुनावो में धांधली की संभावना का आरोप लगाया. उन्होंने कहा कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने धांधली करवाई, खासतौर से उन राज्यों में जहां पर बीजेपी की सरकार थी. इस वजह से पार्टी को इतनी बड़ी जीत मिली. . आउटलुक की रिपोर्ट के मुताबिक, प्रोफेसर दास ने यह भी कहा उनके पास इस बात के सबूत हैं कि वोटिंग और वोटरों के रजिस्ट्रेशन के समय किस तरह गड़बड़ी की गई
यह पेपर पब्लिश होते ही तुरंत अशोका युनिवर्सिटी वालों न दास के रिसर्च पेपर से दूरी बना ली और उन्हे इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर कर दिया
जाने मने चुनाव विशेषज्ञ योगेंद्र यादव लिखते है कि “जिस लेख के बारे में हंगामा है वह अभी छपा नहीं है। शोध लेख सिर्फ एक दो कांफ्रेंस में प्रस्तुत किया गया है और प्रकाशन पूर्व चर्चा के लिए उपलब्ध है। इस शोध लेख में ना कोई सरकार की आलोचना है ना बीजेपी की निंदा, ना कोई आरोप-प्रत्यारोप न ही कोई राजनैतिक लफ्फाजी। “डेमोक्रेटिक बैकस्लिडिंग इन वर्ल्ड्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी” (दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोकतांत्रिक स्खलन) नामक इस लेख में 2019 लोक सभा चुनाव के आधिकारिक परिणामों का संख्यकीय पद्धतियों के सहारे विश्लेषण किया गया है। क्योंकि एक जमाने में मैं इस विषय का जानकार रहा हूं इसलिए मैं विश्वास से कह सकता हूं कि सब्यसाची दास का लेख भारत के चुनावी आंकड़ों पर लिखे गए सबसे गंभीर और गहन लेखों में से एक है।
योगेंद्र यादव लिखते है कि विवाद इसके आंकड़ों या पद्धति से नहीं बल्कि इस लेख के निष्कर्ष से है। 2019 चुनाव के बूथ से लेकर सीट तक के आंकड़ों का बारीकी से विश्लेषण करने के बाद लेख इस निष्कर्ष पर पहुंचता है की दाल में कुछ काला है। जिन 59 सीटों पर जीत हार का फैसला 5 प्रतिशत से कम से अंतर से हुआ है, उनमें से 41 बीजेपी की झोली में गई। गणित के सामान्य नियमों के अनुसार और देश और दुनिया में चुनावों का पुराना रिकॉर्ड देखते हुए यह बहुत असामान्य रुझान है। यह पूरा लेख इस असामान्य रुझान की बारीकी से चीर फाड़ करता है। लेख इस संभावना की जांच कर इसे खारिज करता है की ऐसा भाजपा द्वारा बेहतर पूर्वानुमान और अच्छे चुनाव प्रचार की वजह से हुआ होगा। फिर एक-एक बात का पूरा प्रमाण देते हुए या लेख चुनाव में कुछ सीटों पर हेरा फेरी की ओर इशारा करता है। लेखक के अनुसार ऐसा या तो कुछ चुनिंदा सीटों पर मतदाता सूची में मुस्लिम मतदाताओं के नाम कटवाने या फिर मतदान या मतगणना में गड़बड़ी के जरिए हुआ होगा। क्योंकि लेख सांख्यिकीय पद्धति पर आधारित है इसलिए धोखाधड़ी की संभावना बता सकता है, लेकिन उसका प्रमाण नहीं दे सकता। कोई सनसनीखेज आरोप लगाने से बचते हुए लेखक यह स्पष्ट करता है की अगर ऐसा हुआ भी है तो इससे बीजेपी को ज्यादा से ज्यादा 9 से 18 सीटों का फायदा मिला होगा, जिससे बीजेपी के बहुमत पर असर नहीं पड़ता। इसलिए लेखक यह स्पष्ट करता है कि 2019 में बीजेपी धोखाधड़ी से चुनाव जीती थी, ऐसा निष्कर्ष बिलकुल गलत होगा।इतनी सीमित बात कहने से भी बवाल मच गया है।”
दरअसल शोध पत्र में संभावित हेरफेर का पता लगाने के लिए एक नई विधि का इस्तेमाल किया गया है, जिसे मैकक्रैरी परीक्षण के रूप में जाना जाता है, जो चुनाव डेटा में पैटर्न की जांच करता है। इसमें करीबी मुकाबले वाले निर्वाचन क्षेत्रों में मौजूदा पार्टी (भारतीय जनता पार्टी, ) की जीत के अंतर में शून्य के प्रारंभिक मूल्य पर निरंतर उछाल पाया गया। इस निष्कर्ष से संकेत मिलता है कि भाजपा ने इन करीबी मुकाबले वाले निर्वाचन क्षेत्रों में हार की तुलना में असंगत रूप से अधिक जीत हासिल की, जिससे संभावित हेरफेर के बारे में चिंताएं बढ़ गई हैं। दास लिखते हैं, “इसे मैकक्रेरी परीक्षण के रूप में जाना जाता है और अब यह राजनीतिक अर्थव्यवस्था के विश्लेषण में उपयोग की जाने वाली प्रतिगमन पद्धति में चल रहे हेरफेर के लिए एक मानक जांच है।”
इस पेपर में दास ने “कई नए डेटासेट” संकलित किए है और ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत किए “जो करीबी मुकाबले वाले निर्वाचन क्षेत्रों में चुनावी हेरफेर की और संकेत करते है और यह हेरफेर भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह-मुसलमानों के खिलाफ लक्षित प्रतीत होता है, जो आंशिक रूप से चुनाव पर्यवेक्षकों की कमज़ोर निगरानी के कारण संभव हुआ है।” यानि चुनाव आयोग की
अगर इस तरह से कोई चुनावी प्रक्रिया में की अनियमितताओ को सामने लाया है तो आखिरकार इसमें गलत क्या है क्यों इसे दबाया जा रहा है ?
पोस्ट से सहमत हूँ जी ।।